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जनसत्ता 9 अगस्त, 2014 : कुछ विशेषज्ञों का मानना रहा है कि भारत में श्रम कानूनों में काम के अतिरिक्त घंटों, महिलाओं के काम के समय आदि को लेकर कठोर नियम होने के कारण विदेशी कंपनियां यहां निवेश करने में हिचकती हैं। नरेंद्र मोदी सरकार का जोर चूंकि निवेश के लिए अधिक अनुकूल माहौल बनाने और औद्योगिक उत्पादन बढ़ाने पर है, इसलिए उसने श्रम कानूनों में बदलाव की पहल की है। पिछले हफ्ते मंत्रिमंडल ने कारखाना अधिनियम में काम के घंटे बढ़ा कर दो गुना करने, महिलाओं को रात की पाली में भी काम करने की इजाजत देने और प्रशिक्षुओं की भर्ती आदि संबंधी नियम तय करने का अधिकार कारखाना-मालिकों को देने आदि प्रस्तावों को मंजूरी दे दी। अब यह संशोधन विधेयक संसद में पेश कर दिया गया है। माना जा रहा है कि इन संशोधनों के संसद से पारित हो जाने के बाद औद्योगिक क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को बढ़ावा मिलेगा। मगर जिस तरह लोकसभा सदस्यों को संशोधन प्रस्तावों का प्रारूप मुहैया कराए बगैर यह विधेयक पेश कर दिया गया, उससे सरकार की मंशा पर सवाल उठना स्वाभाविक है। हैरानी की बात है कि कामगारों की आजीविका की सुरक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में समरूपता लाने संबंधी उपाय राज्य सरकारों की मर्जी पर छोड़ दिए गए हैं।
पिछले पच्चीस-तीस सालों में कल-कारखानों में काम का तरीका काफी तेजी से बदला है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों में कामगारों की सुरक्षा, भोजन, स्वास्थ्य, वाहन आदि से संबंधित सुविधाओं का विशेष ध्यान रखा जाने लगा है। ऐसे में भारतीय कारखानों में भी वैसी सुविधाएं लागू करने की दरकार थी। महिलाओं को रात की पाली में काम करने की इजाजत न होने, अतिरिक्त काम के घंटे कम होने के कारण कारखाना-मालिकों को असुविधा होती थी। अब इन नियमों में ढील मिल जाने से श्रमिकों से जुड़ी उनकी समस्याएं कुछ कम हो जाएंगी। प्रशिक्षुओं की भर्ती आदि से जुड़े नियम-कायदे बनाने का पूरा अधिकार मिल जाने से वे अपनी जरूरत के मुताबिक उन्हें रख और हटा सकेंगे। पर इस तरह रोजगार के नए अवसर पैदा करने का दावा नहीं किया जा सकता। फिर कारखाना-मालिकों और कंपनियों के पक्ष में कानूनों
को शिथिल कर देने से कामगारों को आजीविका की सुरक्षा की गारंटी भी नहीं दी जा सकती। पिछले कुछ सालों में मारुति, हीरो होंडा आदि कंपनियों के कामगारों के साथ हुए अन्यायपूर्ण व्यवहार के चलते जो असंतोष का लावा फूटा उससे क्या सबक लिया गया? क्या इस बात को नजरअंदाज कर दिया जाना चाहिए कि रोजगार की सुरक्षा और संतोषजनक पारिश्रमिक न मिल पाना श्रमिकों के सामने सबसे बड़ी समस्या है।
छिपी बात नहीं है कि कामगारों के अतिरिक्त काम का भुगतान कारखाना-मालिक अपनी मर्जी से तय करते हैं। काम के घंटे भी तय नियमों के मुताबिक नहीं होते। कामगारों को जब चाहे तब हटाने की आजादी कारखाना-मालिकों को पहले से हासिल है। मारुति कारखाने में सैकड़ों मजदूर काम से बेदखल कर दिए गए, विरोध जताने पर उनके साथ बर्बरतापूर्ण व्यवहार हुआ और उन्हें सलाखों के पीछे ढकेल दिया गया। ऐसी घटनाएं देश के विभिन्न हिस्सों में हो चुकी हैं। मगर कहीं भी सरकार की सहानुभूति श्रमिकों के साथ नजर नहीं आई। श्रम कानूनों में बदलाव करते समय इन पहलुओं पर सबसे पहले विचार किया जाना चाहिए था। श्रम कानूनों में सुधार का सही अर्थ यह है कि केवल मालिकों का नहीं, श्रमिकों के भी हितों का ध्यान रखा जाए। असंगठित क्षेत्र के लोगों को वैसे भी किसी श्रम-कानून का लाभ नहीं मिल पाता है। लेकिन रोजगार की असुरक्षा संगठित क्षेत्र में भी बढ़ती गई है।